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जीवन कथाएँ >> रत्ना की बात

रत्ना की बात

रांगेय राघव

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1409
आईएसबीएन :9788170283997

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तुलसीदास के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...

Ratna ki bat

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


भक्त कवि गोस्वामी तुलसीदास के जीवन पर आधारित श्रेष्ठ उपन्यास गोस्वामी जी के कवि-व्यक्तित्व के निर्माण में कवि हृदय और आत्मसजग रत्नावली के योगदान की मार्मिक प्रस्तुति प्रख्यात साहित्यकार रांगेय राघव की कलम से
प्रस्तुत उपन्यास ‘रत्ना की बात’ मध्यकालीन हिन्दी कविता के अग्रणी भक्त कवि और रामचरितमानस के अमर गायक गोस्वामी तुलसीदास के जीवन पर आधारित है, जिसमें महाकवि की लोकमंगल की भावना को केन्द्र में रखने के साथ-साथ तुलसी के घरबार और उनके जीवन संघर्ष को फ्लैशबैक तकनीक से इस तरह उभारा गया है कि उस समय का समूचा समाज, युगीन प्रश्न और उस सबके बीच कवि की सामाजिक-सांस्कृतिक भूमिका का एक जीवंत चित्र पाठक के मानसपटल पर सजीव हो उठता है।

 ध्यान देने की बात यह भी है, कि इस उपन्यास के केन्द्र में तुलसीदास तो हैं ही, उनकी पत्नी रत्नावली का स्थान भी घट कर नहीं है-यानी पुरुष और प्रकृति का ठीक सन्तुलन ! न सिर्फ ‘रत्ना की बात’ बल्कि इस श्रृंखला के अधिकांश उपन्यासों का महत्त्व इतिहास समाज और संस्कृति के विकास में पुरुष के साथ-साथ स्त्री का महत्त्व निरूपित करने के लिए भी है।
रांगेय राघव का यह उपन्यास तुलसीदास और रत्नावली के माध्यम से मध्यकालीन हिन्दी भक्ति काव्य का एक जीवन्त और हार्दिक चित्र प्रस्तुत करता है, जो पाठक को अन्त तक बांधे रहता है।


भूमिका


प्रस्तुत पुस्तक में तुलसीदास का जीवन वर्णित है। उनका जीवन वृत्त ठीक से नहीं मिलता। जो है वह विद्वानों द्वारा पूर्णतया नहीं माना गया है, इतस्ततः जो उन्होंने अपने बारे में कहा है, जो बाह्य साक्ष्य है, जो दो श्रुतियाँ हैं, उन सबने मिलकर ही महाकवि का वर्णन पूरा कर सकना सम्भव किया है।
तुलसी और कबीर भारतीय इतिहास की दो महान विभूतियाँ हैं। दोनों ने भिन्न-भिन्न कार्य किए हैं। उन्होंने इतिहास की विभिन्न विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व किया है। दोनों के विचारों का न निर्माण वर्गों अर्थात् वर्णों के दृष्टिकोण से हुआ था। ‘लोई का ताना’ में मैं कबीर के विषय में लिख चुका हूँ।

रत्ना तुलसीदास की पत्नी थी और वह स्वयं कवयित्री थी।
तुलसीदास प्रकाण्ड विद्वान थे। उन्हें जीवन के अन्तिम काल में अपने युग के सम्मानित व्यक्तियों द्वारा आदर प्राप्त हो गया था। कबीर को केवल जनता का आदर मिल सका था। दोनों पुस्तकें पढ़ने पर यह बिलकुल ही स्पष्ट हो जाएगा।
तुलसीदास अपनी कविताएँ लिखते थे। परन्तु उनके कुछ ऐसे पद, दोहे आदि हैं जो इतने मुखर हैं कि सम्भवतः लिखे बाद में गए होंगे कहे पहले गए होंगे। वे बहुत चुभते हुए हैं और अधिकांशतः उनमें आत्म परिचय आदि हैं। इसीलिए मैंने उनको उद्धृत कर दिया हैं। बाकी उद्धरणों में दो प्रकार की रचनाएँ हैं। एक वे उद्घरण हैं जो कवि के जीवन के साथ-साथ यत्र-तत्र उनकी रचना का भी अल्पाभास देते हैं। दूसरे वे उद्घारण हैं जो यह प्रकट करते हैं कि वे केवल कवि नहीं थे, वे मूलतः भक्त थे। अतः लिखकर रख देना ही उनका काम नहीं था। वे उस विचार को बाद में, लिखते समय, या पहले भी, अनुभव करते थे। उनकी जीवन भक्ति था, लेखन भक्ति था। अतः भक्ति के पक्ष को दिखलाने के लिए भी उनकी रचनाओं का ही सहारा लिया गया है।

तुलसी ने कई काव्य-ग्रन्थ लिखे हैं। कई प्रकार से राम की कथा लिखी है। कभी कविता में कभी मानस में कभी बरवै में, कभी रामाज्ञा-प्रश्न आदि में। उनका भी यत्र-तत्र मैंने आभास दिया है कि वे रचनाएँ एक ही राम के भक्त ने विभिन्न समयों पर विभिन्न कारणों और दृष्टिकोणों से लिखी हैं।
तुलसी एक समर्थ प्रचारक थे। उन्होंने एक धर्मगुरु का काम किया है, इसे मैंने स्पष्ट किया है। तुलसी के लक्ष्य, कार्य, प्रभाव आदि को मैंने विस्तार से लिखा है। कबीर भी विचारक थे। उन्होंने अपने दृष्टिकोण को लेकर लिखवाया था। तुलसी ने अपने विचार को लेकर समाज को अपनी रचनाएँ दी थीं। तत्कालीन धर्म में राजनीति किस प्रकार निहित थी, यह दोनों पुस्तकों को पढ़कर निस्संदेह प्रकट होगा।

तुलसी के सामाजिक कार्य उनकी भक्ति, उनके सुधार, उनके विद्रोह, उनके विचार, उनका दृष्टिकोण ऐसे विषय हैं जिन पर लोगों का भिन्न मत है। जो तुलसीदास कहते हैं, हमें वह देखना चाहिए। तुलसी ने जो प्रगति की, उसे समझने के लिए केवल उन्हें देख लेना काफी नहीं है, उनके पूर्ववर्ती युगों को भी देखना आवश्यक है।
कबीर गरीब नीच जाति के जुलाहे थे। वे वर्णाश्रम को नहीं मानते थे, न मुसलमानों को ही ठीक समझते थे। उन्होंने मनुष्य को अपने धर्म का उद्देश्य बनाया था।

तुसली पुनरुत्थानवादी थे। कबीर के लिए पुरानी संस्कृति एक बोझ थी। तुसली ब्राह्मण थे, अतः उनके लिए वह गौरव थी। तुलसी ने उसी धर्म को फिर से मर्यादा दिलाई। एक फर्क यह हुआ कि तुलसी ने रूढ़ियों के उन्हीं पुराने बन्धनों को तोड़ा जो वेद-ब्राह्मण की शक्ति को रोकते थे। उन्होंने रियासतें देकर अधिकार प्राप्त किए। कबीर के समय में मुसलमान पूरी तरह जमे नहीं थे। फिर कबीर वर्णाश्रम के नीचे भी पीड़ित थे। तुलसी के समय में मुगलों का वैभव और शोषण था। तुलसी के पहले भक्ति आन्दोलन निम्नवर्णीय विद्रोह का प्रतीक था, जो कहता था कि भगवान के सामने सब बराबर हैं। तुलसी ने इसे तो माना, और वैसे ही माना जैसे पहले श्रीमद्भागवत में माना गया था, परन्तु वेद-धर्म समाज के लिए आवश्यक माना और पुनरुत्थान की ओर समाज को जगाया। तुलसी की भक्ति सामाजिक रूप में वेद, धर्म और व्यक्ति पक्ष में भगवान से याचना थी। तुलसी ने भगवान को आदर्श सामंत राजा के रूप में ही स्वीकार किया।

तुलसी के बाद वे हिन्दू-मुसलमान सम्प्रदायों के समन्वयवादी दृष्टिकोण जो निर्गुणवादियों में थे, जैसे सिक्ख आदि, वे सब एक संस्कृति के नाम पर संगठित होने लगे और वे सब मुस्लिम विरोधी हो गए। उस विरोध का कारण आर्थिक शोषण था-मुगलों के साम्राज्य का शोषण।
कबीर और तुलसी ने अपने-अपने समय, में मध्यकाल में, इस प्रकार भारत को गहरी तरह से प्रभावित किया। दोनों के समय में परिस्थितियाँ बदल गई थीं और दोनों ने ही उसे अपने-अपने वर्ण-दृष्टिकोण से सुलझाने का प्रयत्न किया था।

रांगेय राघव

रत्ना की बात

भोर हो गई। पहली किरण ने हल्का-सा आलोक फैलाया, तब पक्षी कलकल निनाद करते हुए आकाश में उड़ चले और काशी के घाटों पर भोर की जगार सुनाई देने लगी। धीरे-धीरे आलोक अन्धकार के साथ जूझते-जूझते ताँबें की चमक से भर गया और वह गंगा की गम्भीर और विस्तृत धारा पर झलमलाने लगा। किसी ने कलकण्ठ से गाया : हरे रामा, हरे रामा...
और फिर दूर धीवरों की बंसियों के बजने का मीठा स्वर आया और कुछ देर बाद जब घाट के सहारे खड़े विशाल प्राचीरों वाले मन्दिरों के घण्टे घननन-घननन करके बजने लगे, तब गेरुए वस्त्र धारण करने वाले साधुओं के झुण्ड के झुण्ड जल तीर पर चलते-फिरते दिखाई देने लगे।

शीतल पवन मंद-मंद गति से चलकर रात की सारी थकान का हरण कर रहा था, और लहरों के अंगों को जब वह पवन हौले से छू देता तो फरफरी-सी मच जाती। वे उधर अपने अंगों को सिकोड़कर अपनी साड़ी खींचकर अपना शरीर ढांक लेने के प्रयत्न करतीं इधर यह पवन भी अपने दाह को खोकर बोझिल होने लगा-

देवि सुरेश्वरि भगवति गंगे
त्रिभुवनतारिणि तरलतरंगे
शंकरमौलिहारिणि विमले
मम मतिरास्तां तव पद कमले।
शब्द और भी उठा-
भागीरथि सुखदायिनि मातः-
तब जलमहिमा निगमे ख्याता।
नाहं जाने तब महिमानं
पाहि कृपामयि मामज्ञानम्

और भगवती पतिततारिणी जाह्वी के प्रति निकले हुए वे शब्द धीरे-धीरे आने-जानेवालों के कानों में गूँजने लगे, जिनको सुनकर अँधेरे ही में पथों पर झाडू लगा चुकने वाले मेहतर अब वहाँ से भाग निकले, ताकि अपने दर्शन से वे उच्च जाति के पवित्र लोगों को प्राप्तःकाल ही अशुभ के सम्मुख न ले जा सकें। उस समय भी करोड़ों मन जलराशि गंगा में बही जा रही थी, जैसे शाश्वत होकर वह धारा बही जा रही हो।
असीघाट के ऊपर बने हुए एक छोटे से घर में उस समय एक तरुण ने उठकर द्वार खोला और बाहर झांका। प्रकाश खुले दरवाजे से धीमे से भीतर घुसा। तरुण के नेत्र लाल हो रहे थे। लगता था वह रात भर का जागा है। वह बाहर आ गया है और उसने कन्धे पर पड़ी रामनामी चादर को उतारकर फटकारा और फिर बाएँ कन्धे पर धरकर ऊपर को हाथ उठाकर अंगड़ाई ली। उसकी मूँछें पतली थीं, और होंठों के दोनों ओर बिखर गई थीं। और ठोड़ी पर काली दाढ़ी के बाल करे से उग आए थे।

घर की दीवारों पर काई जम गई थी।
उस तरुण को देखकर घाट पर कोई धीरे-धीरे चढ़ने लगा। उसने धीमे से कहा : क्यों रे नारायण ! गुसाईंजी की तबीयत अब कैसी है ?
पूछनेवाले के स्वर में एक सुव्यवस्थित विनम्रता थी।
तरुण ने उदासीनता से देखा और कहा : रात भर सो नहीं सके।
‘राम-राम !’ पूछने वाले ने कहा और फिर दुहराया : राम-राम ! बड़ी यातना है, बड़ी यातना है।’’
पता नहीं भगवान इतना दुःख क्यों दे रहा है ?’
‘यही मैं भी सोचता हूँ। इतने बड़े महात्मा को ही जब ऐसा कष्ट मिल रहा है, तो हम जैसों को तो जाने क्या होगा !’’
कहते-कहते वह सिहर उठा। जैसे सारा जीवन फिर आँखों के सामने नाच गया हो।
‘‘कोई नहीं जानता।’’ उसने फिर कहा। ‘‘फिर यही एक जीवन तो नहीं है नारायण।’’
नारायण ने सिर हिलाया जैसे वह जानता था।
पूछनेवाले ने जैसे अपने -आपसे कहा : यही एक होता तो संसार इतना विचित्र क्यों होता ? महात्मा ठहरे वे।
नारायण के नेत्र फड़के।

‘‘उन्होंने पाप नहीं किया।’’ उसने कहा।
‘‘पाप ! राम-राम !’’ दूसरे ने कहा : ‘‘अरे उस जैसा पहुँचा हुआ महात्मा अगर पाप करेगा तो शेष और कच्छप दोनों ही इस धरती को नहीं सम्भाल सकेंगे नारायण। डूबने के लिए नीचे जाने की जरूरत नहीं होगी, उल्टे रसातल ही ऊपर उठ आएगा और कलि से डूबी हुई धरती को सदा के लिए निगल जाएगा।’’
दोनों के नेत्रों में भयार्त्त छाया डोलने लगी।
नारायण कुछ कह नहीं सका क्योंकि पहले जन्म के बारे में वह कुछ जानता नहीं था। कोई नहीं बता सकता था कि पूर्व जन्म में कौन क्या था ? यह तो अचानक समझ में न आने वाले कष्ट थे, यह तो आँखो देखते हुए म्लेच्छों की उन्नति हो रही थी, यह जो भले लोग कष्ट पा रहे थे, बुरे लोगों का वैभव बढ़ रहा था, यह सब जो समझ में नहीं आता था, यदि पूर्व जन्म ही इस सबका कारण न था तो और क्या हो सकता था ?

पूर्व जन्म !
जन्म-जन्मांतर का दारुण चक्र !
मृत्यु के समीप आकर यातना के बारे में मनुष्य का चिन्तन !!
नारायण क्या कहता है ?
उसका हृदय टूक-टूक हो रहा था। वह अपने-आपको छोटा-सा समझता। उसके सामने धीरे-धीरे एक विशाल पहाड़ गल रहा था। वह उस कनक कंगूरे वाले महानगर को जल-जलकर समाप्त होते हुए देख रहा था।
उसका गला भर आया।
आने-जाने वाले रुक गए थे।
एक ने धीमे से पूछा : ‘‘अरे क्या हाल है ?’’
‘‘वही हाल है।’’
‘‘कोई लाभ नहीं ?’’
‘‘नहीं ।’’
तब किसी बूढ़े ने उदास स्वर में कहा : ‘‘एक दिन तो ऐसा आता ही है भाइयो ! गुसाईंजी की उमर पूरी हुई। वे पुण्यात्मा हैं।’’
‘‘पुण्यात्मा ? वे कलियुग को काटने वाले परम तपस्वी हैं !’’
‘‘अरे भइया ! वे वाल्मीकि मुनि के अवतार हैं।’’
‘‘रात भर’’, नारायण ने कहा—बड़ा कष्ट रहा।’’


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